कर्म और यज्ञ

 

     बुद्धियोग और ब्राह्मी स्थिति में उसकी परिसमाप्ति, जो गीता के द्वितीय अध्याय के अंतिम भाग का विषय है, उसमें गीता की बहुत कुछ शिक्षा बीज-रूप से आ गयी है-गीता का निष्काम कर्म, समत्व, बाह्य संन्यास का वर्जन और भगवद् भक्ति, ये सभी सिद्धांत इसमें आ गये है । परन्तु अभी ये सब बहुत ही अल्प और अस्पष्ट रूप में हैं । जिस बात पर अभीतक सबसे अधिक जोर दिया गया है वह यही है कि मनुष्य के कर्म करने का जो सामान्य प्रेरक-भाव हुआ करता है उससे, अर्थात् उसकी अपनी कामना से तथा आवेशों और अज्ञान के साथ इंद्रियसुख के पीछे दौड़नेवाले विचार और संकल्पमय उसके सामान्य प्राकृत स्वभाव से और अनेक शाखा-पल्लवों से युक्त संतप्त विचारों और इच्छाओं में भटकते रहने का उसका जो अभ्यास है उससे, मनुष्य की बुद्धि हट जाय और वह ब्राह्मी स्थिति की निष्काम स्थिर एकता और निर्विकार प्रशान्ति में पहुँच जाय । इतना अर्जुन ने समझ लिया है । इसमें उसके लिये कोई नयी बात नहीं; क्योंकि उस समय की प्रचलित शिक्षा का यही सार था जो मनुष्य को सिद्धि प्राप्त करने के लिये ज्ञान का मार्ग तथा जीवन और कर्म से संन्यास का मार्ग दिखा देता था । बुद्धि का इन्द्रियों से, विषय-वासनाओं से तथा मानव-कर्म से हटकर उस परम में, उस एकमेवाद्वितीय अकर्ता पुरुष में, उस अचल निराकार ब्रह्म में लगना ही ज्ञान का सनातन बीज है । यहाँ कर्म के लिये कोई स्थान नहीं, क्योंकि कर्म अज्ञान के है; कर्म ज्ञान से सर्वथा विपरीत हैं; कर्म का बीज है कामना और उसका फल है बंधन-यही कट्टर दार्शनिक मत है और श्रीकृष्ण भी इसे स्वीकार करते हुए मालूम होते हैं, जब वे कहते हैं कि कर्म बुद्धियोग के सामने बहुत ही नीचा है । और फिर भी जोर देकर यह कहा जाता है कि योग के अंग के रूप में कर्म करना होगा; इस तरह इस शिक्षा में एक मूलगत परस्पर-विरोध देख पड़ता है । इतना ही नहीं; क्योंकि ज्ञान की अवस्था में भी कुछ काल तक किसी प्रकार का कोई कर्म बना रह सकता है, ऐसा कर्म जो कम-से-कम हो, अत्यंत निर्दोष हो; पर यहां जो कर्म बाताया जा रहा है वह  तो ज्ञान के, सौम्यता के और स्वांत:सुखी जीव की

 

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अचल शान्ति के सर्वथा विरुद्ध है--यह कर्म तो एक भयानक, यहाँतक कि राक्षसी कर्म है, खून-खराबे से भरा हुआ संघर्ष है, एक निर्दय संग्राम है, एक दानवी हत्याकांड है । फिर भी इसी कर्म का यहाँ विधान किया जा रहा है और अंत-स्थ शान्ति और निष्काम समता तथा ब्राह्मी स्थिति की शिक्षा से इसका समर्थन किया जा रहा है ! यह ऐसा परस्पर-विरोध है जिसका अभी मेल नहीं मिला है । अर्जुन इस बात का उलहना देता है कि मुझे ऐसी शिक्षा दी जा रही है जिसमें सिद्धांतों का परस्पर-विरोध है और उससे बुद्धि बड़े असमंजस में पड़ती है, ऐसा कोई स्पष्ट और सुनिश्चित मार्ग नहीं दिखाया जा रहा, जिसपर चलकर मनुष्य की बुद्धि बिना इधर-उधर भटके सीधे परम कल्याण की ओर चली जाय । इसी आपत्ति का उत्तर देने के लिये गीता तुरत अपने निश्चित और अलंधनीय कर्म-सिद्धांत का अधिक स्पष्ट प्रतिपादन आरम्भ करती है ।

      गुरु पहले मोक्ष के उन दो साधनों का भेद स्पष्ट करते हैं जिन्हें मनुष्य इस लोक में अलग-अलग अपना सकते हैं, एक है ज्ञानयोग और दूसरा है कर्मयोग । साधारण मान्यता ऐसी है कि ज्ञानयोग कर्मों को मुक्ति का बाधक कहकर त्याग देता है और कर्मयोग इनको मुक्ति का साधन मानकर स्वीकार करता है । गुरु अभी इन दोनों को मिला देने पर, इन दोनों का विभाजन करनेवाले विचारों में मेल मिलाने पर बहुत अधिक जोर नहीं दे रहे हैं, बल्कि यहाँ इतनेसे आरम्भ करते हैं कि सांख्यों का कर्मसंन्यास न तो एकमात्र मोक्षमार्ग है और न कर्मयोग से उत्तम ही है । नैष्कर्म्य अर्थात् कर्मरहित शान्त शून्यता अवश्य ही वह अवस्था है जो पुरुष को प्राप्त करनी है; क्योंकि कर्म प्रकृति के द्वारा होता है और पुरुष को सत्ता की कर्मण्यताओं में लिप्त होने की अवस्था से ऊपर उठकर उस शान्त कर्मरहित अवस्था और समस्थिति में पहुँचना होगा जहाँसे वह प्रकृति के कर्मों का साक्षित्व तो कर सके, पर उनसे प्रभावित न हो । पुरुष का नैष्कर्म्य तो यथार्थ में यही है, प्रकृति के कर्मों का बन्द हो जाना नहीं । इसलिए यह समझना भूल है कि किसी प्रकार का कर्म न करने से ही नैष्कर्म्य अवस्था को पाया और भोगा जा सकता है । केवल कर्मों का संन्यास तो मुक्ति का पर्याप्त, यहांतक कि एकदम उचित साधन भी नहीं है । ''कर्म न करने से ही मनुष्य नैष्कर्म्य को नहीं प्राप्त होता, न केवल (कर्मों के ) संन्यास से उसे सिद्धि ही प्राप्त होती है ।'' यहां सिद्धि से मतलब है, योगसाधना के लक्ष्य की प्राप्ति ।

     पर कम-से-कम कर्मो का संन्यास, एक आवश्यक, अनिवार्य और अलंघनीय साधन तो होगा ही ? यदि प्रकृति के कर्म होते रहें तो पुरुष के लिये यह कैसे संभव

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१. ३ - ८

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है, कि वह उनमें लिप्त न हो ? यह कैसे संभव है कि मैं युद्ध भी करूँ और अपने अन्दर यह न समझूं, यह न अनुभव करूँ कि मैं, अमुक व्यक्ति युद्ध कर रहा हूँ, न तो विजय-लाभ की इच्छा करूँ और न हारने पर अन्दर दुख ही हो । सांख्यों का यह सिद्धान्त है कि जो पुरुष प्रकृति के कर्मों में नियुक्त होता है, उसकी बुद्धि अहंकार, अज्ञान और काम में फँस जाती है और इसलिए वह कर्म में प्रवृत्त होती है । दूसरी ओर, बुद्धि यदि निवृत्त हो तो इच्छा और अज्ञान की समाप्ति होने से कर्म का भी अंत हो जाता है । इसलिए मोक्षमार्ग की साधना में संसार और कर्म का परित्याग एक आवश्यक अंग, अपरिहार्य अवस्था और अनिवार्य अंतिम साधन है । उस समय की विचार-पद्धति का यह आक्षेप-यद्यपि अर्जुन के मुख से यह बात बाहर नहीं हुई है, पर यह उसके मन में है, यह उसकी बाद की बातचीत से झलकता हे--भगवान् गुरु ताड़ जाते हैं । वे कहते हैं कि नहीं, इस प्रकार के संन्यास का अनिवार्य होना तो दूर रहा, ऐसे संन्यास का होना ही संभव नहीं है । ''कोई प्राणी एक क्षण के लिये भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता; प्रकृतिजात गुण हर किसी से बरबस कर्म कराते ही हैं ।''  इस महान् विश्वकर्म का और विश्व-प्रकृति की शाश्वत कर्मण्यता और शक्ति का यह स्पष्ट और गभीर अनुभव गीता की एक विलक्षण विशेषता है । प्रकृति के इसी भाव पर तांत्रिक शाक्तों ने आगे चलकर बहुत जोर दिया, उन्होंने तो प्रकृति या शक्ति को पुरुष से भी श्रेष्ठ बना दिया । प्रकृति या शक्ति की महिमा का गीता में यद्यपि मृदु संकेतमात्र है, फिर भी, उसके ईश्वरवादी और भक्तिवादी तत्वों की शिक्षा के साथ मिलकर यह महिमा काफी बलवान् हो गयी है और इसने प्राचीन दार्शनिक वेदांत की शान्ति-कामी प्रवृत्ति का संशोधन कर अपने योगमार्ग में कर्म की उपयोगिता को सिद्ध कर दिया है । प्रकृति के जगत् में शरीरधारी मनुष्य एक क्षण के लिए, एक पल-विपल के लिए भी कर्म नहीं छोड़ सकता; उसका यहाँ रहना ही एक कर्म है; सारा विश्वब्रह्मांड ईश्वर का एक कर्म है, केवल जीना भी उसी की एक क्रिया है ।

    हमारा दैहिक जीवन, उसका पालन, उसकी निरवच्छिन्न स्थिति एक यात्रा है, एक शरीरयात्रा है, और कर्म के बिना वह पूरी नहीं हो सकती । परन्तु यदि कोई मनुष्य अपने शरीर को न पाले-पोसे, यों ही बेकार छोड़ दे, किसी वृक्ष-सा सदा चुप खड़ा रह जाय या पत्थर-सा अचल बैठा रहे तो भी इस वैटप या शैल अचलता से वह प्रकृति के हाथ से नहीं बच सकता; प्रकृति के गुण-कर्म से उसकी मुक्ति नहीं हो सकती । कारण केवल हमारे शरीर का चलना-फिरना और अन्य कर्म करना ही कर्म नहीं है, हमारा मानसिक जीवन भी तो एक बहुत

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१. ३-५.

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बड़ा जटिल कर्म है, बल्कि चंचला प्रकृति के कर्मों का यही बृहत्तर और महत्तर अंग है-हमारे बाह्य दैनिक कर्म का यही आंतरिक कारण और नियामक है । यदि हमने आंतरिक कारण की क्रिया को तो जारी रखा और उसके फलस्वरूप होनेवाले बाह्य कर्म का निग्रह किया तो इससे कोई लाभ नहीं । इन्द्रियों 'के विषय हमारे बंधन के केवल निमित्त-कारण हैं असल कारण तो मन का तद्विषयक आग्रह है । मनुष्य चाहे तो कर्मेन्द्रियों का नियमन कर सकता है और उन्हें उनकी स्वाभाविक कर्मक्रीड़ा से रोक सकता है, पर यदि उसका मन इन्द्रियों के विषयों का ही स्मरण और चिंतन करता रहे तो ऐसे संयम और दमन से कोई लाभ नहीं । ऐसा मनुष्य तो आत्म-संयम को कुछ-का-कुछ समझकर अपने-आपको भ्रम में डालता है; वह न तो संयम के उद्देश्य को समझता है न उसकी वास्तविकता को, न अपने अंत:करण के मूल तत्वों को ही; इसलिए संयम के संबंध में उसके सब प्रयत्न मिथ्या और व्यर्थ हो जाते है और वह मिथ्याचारी कहलाता है । शरीर के कर्म, और मन से होनेवाले कर्म भी अपने-आपमें कुछ नहीं हैं, न वे बंधन है न बंधन के मूल कारण ही । मुख्य बात है प्रकृति की वह प्रबल शक्ति जो मन, प्राण और शरीर के महान् क्षेत्र में अपनी ही चलायेगी, वह अपने ही रास्ते चलेगी : उसमें खतरनाक चीज है त्रिगुण की वह ताकत जिससे बुद्धि मोहित होती और भरमती है और इस तरह आत्मा को आच्छादित करती है । आगे चलकर हम देखेंगे कि कर्म और मोक्ष के संबंध में गीता का सारा रहस्य यही है । त्रिगुण के व्यामोह और व्याकुलता से मुक्त हो जाओ, फिर कर्म हुआ करे, क्योंकि वह तो होता ही रहेगा; फिर वह कर्म चाहे जितना भी विशाल हो, समृद्ध हो या कैसा भी विकट और भीषण हो, उसका कुछ महत्व नहीं, क्योंकि तब पुरुष को उसकी कोई चीज छू नहीं सकती, जीव नैष्कर्म्य की अवस्था को प्राप्त हो चुकता है ।

      परन्तु इस बृहत्तर तत्व का गीता अभी तुरत वर्ण न नहीं कर रही है । जब मन ही कारण है, अकर्म जब असंभव है, तब यही युक्ति-संगत, आवश्यक और उचित है कि आंतर और बाह्य कर्मों को संयम के साथ किया जाय । मन को चाहिए कि ज्ञानेन्द्रियों को मेधावी संकल्प के यंत्न के रूप में अपने वश में करे और कर्मेन्द्रियों को उनके उचित कर्म में लगाये, लेकिन ऐसे कर्म में जो योग के रूप में किया जाय । पर इस आत्मसंयम का सारतत्व क्या है, कर्मयोग का अभिप्राय

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१. मेर विचार में मिथ्याचारी का अर्थ पाखण्डी नहीं हो सकता । जो अपने शरीर को इतने क्लेश पहुंचाता और भूखों मार डालता है वह पाखण्डी कैसे हो सकता है ? वह भूला हुआ है, श्रम में है, 'विमूढ़ात्मा' है और उसका आचार मिथ्या और व्यर्थ है, अवश्य ही गीता का यहां यही अभिप्राय है ।

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क्या है ? कर्मयोग का अभिप्राय है अनासक्ति; कर्म करना, पर मन को इन्द्रियों के विषयों से और कर्मों के फल से अलिप्त रखना । संपूर्ण अकर्म नहीं, संपूर्ण अकर्म तो भ्रम है, मन की उलझन है, आत्मप्रवंचन है और असंभव है, बल्कि वह कर्म जो पूर्ण और स्वतंत्र हो, इन्द्रियों और आवेशों के वश होकर न किया गया हो--ऐसा निष्काम और आसक्तिरहित कर्म ही सिद्धि का प्रथम रहस्य है । इस प्रकार भगवान् कहते हैं कि नियत कर्म करो, ''नियतं कुरु कर्म त्वं'' । मैंने यह कहा है कि ज्ञान, बुद्धि, कर्म की अपेक्षा श्रेष्ट है, ''ज्यायसी कर्मणोबुद्धि:''; पर इसका यह अभिप्राय नहीं कि कर्म से अकर्म श्रेष्ठ है, श्रेष्ठ तो अकर्म की अपेक्षा कर्म ही है, ''कर्म ज्यायो अकर्मणः'' । कारण ज्ञान का अर्थ कर्म का संन्यास नहीं है, ज्ञानका अर्थ है समता, तथा वासना और इन्द्रियों के विषयों से अनासक्ति । और इसका अर्थ है बुद्धि का उस आत्मा में स्थिर-प्रतिष्ठ होना जो स्वतंत्र है, प्रकृति के निम्न कर्मो के बहुत ऊपर है और वहीं से मन, इन्द्रियों और शरीर के कर्मों को आत्मज्ञान की तथा आध्यात्मिक अनुभूति के विशुद्ध निर्विषय आत्मानंद की शक्ति द्वारा नियत करता है । इस प्रकार से जो कर्म नियत होता है, वही  ''नियतं कर्म'' है । बुद्धियोग कर्म द्वारा परिपूर्ण होता है, आत्म-मुक्ति को देनेवाला बुद्धियोग निष्काम कर्मयोग द्वारा सार्थक होता है । निष्काम कर्म की आवश्यकता का यह सिद्धांत गीता प्रस्थापित करती है, और सांख्यों की ज्ञान-साधना को--मात्न बाह्य विधि का परित्याग करके--योग की साधना के साथ एक करती है ।

     परन्तु फिर भी एक मूलगत समस्या का अभीतक समाधान नहीं हुआ । मनुष्यों के जितने भी कर्म हैं वे सभी किसी-न-किसी कामना से प्रेरित हुआ करते हैं और इसलिए यह कहना पड़ता है कि पुरुष यदि कामना से मुक्त हो जाय तो फिर

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१. 'नियतं कर्म' का आजकल जो अर्थ लगाया जाता है; मैं उसे नहीं मान सकता । नियत, कर्मका अर्थ बंधे-बंधाये और वैध कर्म अर्थात् वेदोदोक्त याज्ञिक आनुष्ठानिक नित्यकर्म ओर दिनचर्या नहीं है । निश्चय ही पिछले श्लोक के 'नियम्य' शब्द का तात्पर्य लेकर ही इस श्लोक में 'नियत' शब्द प्रयुक्त हुआ है 1 भगवान् पहले एक वर्णन करते हैं, ''जो कोई मन से इन्द्रियों का नियमन करके कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्मयोग करता है. बह श्रेष्ठ है ( मनसा नियम्य आरभते कर्मयोगमू) और यह कहकर फिर तुरत इसी कथन से, इसीके सारांशस्वरूप इसी को विधि बनाते हुए यह आशा देते हैं कि ''तू नियत कर्म कर  ( नियतं कुरु कर्म त्वं )''--नियतं' शब्द में ''नियभ्य'' को लिया गया है और ''कुरु कर्म'' शब्द में ''आरमते कर्मयोगम्'' को । यहां किसी बाह्य विधि द्वारा निश्चित वैध कर्म की बात नहीं है, बल्कि गीता की शिक्षा है मुक्त बुद्धि द्वारा नियत किया हुआ निष्काम कर्म |

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उसके लिए कर्म का प्रेरक कोई कारण नहीं रहता । हो सकता है कि शरीर की रक्षा के लिए फिर भी हमें कुछ-न-कुछ कर्म करना पड़े, पर यह भी शरीरसंबंधी वासना की एक अधीनता हुई और यदि हमें सिद्धि प्राप्त करनी है तो ऐसी वासना से भी मुक्त होना होगा । परन्तु यदि हम यह मान लें कि ऐसा नहीं किया जा सकता, तो फिर एक ही रास्ता रह जाता है कि हम कर्म का कोई ऐसा नियम मान लें जो हमारे बाहर हो और हमारे अंत:करण की किसी चीज से परिचालित न होता हो, अर्थात् जो मुमुक्षु है वह वैदिक नित्यकर्म, आनुष्ठानिक यज्ञ, दैनंदिन कर्म, सामाजिक कर्तव्य आदि किया करे और इन सबको केवल इसलिए करे कि यह शास्त्र की आज्ञा है तथा इनमें वह न तो कोई वैयक्तिक हेतु रखे और न आंतरिक रस ले, वह जो कुछ करे सर्वथा उदासीन रहकर करे, प्रकृति के वश होकर नहीं, बल्कि शास्त्र का आदेश समझकर । परन्तु यदि कर्मतत्व इस प्रकार बाहर की कोई चीज न होकर अंत:करण की वस्तु हो, यदि मुक्त और ज्ञानी पुरुषों के कर्म भी उनके स्वभाव से ही नियत और निश्चित होते हों, ''स्वभावनियतं'', तब तो वह आंतरिक तत्व एकमात्न कामना ही हो सकती है, फिर वह कामना चाहे कैसी भी हो--चाहे वह शरीर की लालसा हो या हृदय का भावावेग या मन का कोई क्षुद्र या महान् ध्येय-पर होगी प्रकृति के गुणों के अधीन कामना ही । यदि यह मान लिया जाय तो गीता के नियत कर्म को वेदविहित नित्यकर्म और उसके  'कर्तव्य कर्म' को सामजिक आर्य धर्म समझना होगा और उसके 'यज्ञार्थ कर्म' को वैदिक यज्ञ, एवं नि:स्वार्थ भाव से तथा बिना किसी वैयक्तिक उद्देश्य के किया हुआ बंधा-बंधाया सामाजिक कर्तव्य मानना होगा । लोग गीता के नि:स्वार्थ कर्म की बहुधा इसी तरह की व्याख्या किया करते हैं । परन्तु मुझे लगता है कि गीता की शिक्षा इतनी अनगढ़ और सहज नहीं है, इतनी देशकालमर्यादित और लौकिक तथा अनुदार नहीं है । गीता की शिक्षा उदार, स्वतंत्र, सूक्ष्म और गंभीर है; सब काल और सब मनुष्यों के लिये है, किसी खास समय और देश के लिये नहीं । गीता की यह विशेषता है कि यह सदा बाहरी आकारों, व्योरों और सांप्रदायिक धारणाओं के बंधनों को तोड़कर मूल सिद्धान्तों की ओर तथा हमारे स्वभाव और हमारी सत्ता के महान् तथ्यों की ओर अपना रुख रखती है । गीता व्यापक दार्शनिक सत्य और आध्यात्मिक व्यावहारिकता का ग्रंथ है, अनुदार सांप्रदायिक और दार्शनिक सूत्रों और बँधे-बँधाये मतवादों का ग्रंथ नहीं ।

     परन्तु कठिनाई यह है कि हमारा वर्तमान स्वभाव, और कर्मों के प्रेरक तत्व कामना के होते हुए निष्काम कर्म संभव है क्या ? जिसे हम साधारणतया नि:स्वार्थ कर्म कहते हैं वह यथार्थ में निष्काम नहीं होता, उसमें छोटे-मोटे वैयक्तिक स्वार्थ

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की जगह दूसरी बृहत्तर वासनाएँ होती हैं उदाहरणार्थ, पुण्य-संचय, देश-सेवा, मानव-समाज की सेवा । फिर कर्म मात्र ही, जैसा कि भगवान् आग्रह-पूर्वक कहते हैं प्रकृति के गुणों द्वारा ही हुआ करता है; शास्त्र के अनुकूल आचरण करते हुए भी हम अपने स्वभाव के ही अनुकूल कर्म करते हैं । प्राय : शास्त्रोक्त कर्म के पीछे हमारी इच्छाएँ, पूर्वनिश्चित मत, आवेश, अहंकार, वैयक्तिक, राष्ट्रीय और सांप्रदायिक अभिमान, मत और अनुराग छिपे होते हैं । यदि, मान लीजिये, ऐसा न भी हो और अत्यंत विशुद्ध भाव से ही शास्त्रोक्त कर्म किया जाय तो भी ऐसे कर्म में हम अपनी प्रकृति की पसंद का ही अनुसरण करते हैं, क्योंकि यदि हमारी प्रकृति ऐसे कर्म के अनुकूल न होती, यदि हमारी बुद्धि और हमारे संकल्प पर गुणों के किसी दूसरे संघात की क्रिया  हुई होती तो हम शास्त्रोक्त कर्म करने की ओर कदापि न झुकते, बल्कि अपनी मौज या अपनी बुद्धि की धारणा के अनुसार ही अपना जीवन व्यतीत करते अथवा सामाजिक जीवन का त्याग कर एकांतवास करते या संन्यासी हो जाते । अस्तु, अपने-आपसे बाहर का कोई विधान मानने से ही हम नैर्व्यक्तिक नहीं हो सकते, कारण इस प्रकार हम अपने-आपसे बाहर नहीं हो सकते । यह काम हम केवल अपने अन्दर उच्चतम तत्व को प्राप्त करके ही कर सकते हैं, अर्थात् हमें अपनी नित्यमुक्त अंतरात्मा और जीवात्मा को प्राप्त करना होगा, जो सबके अन्दर एक ही है और इसलिए इसका कोई निजी स्वार्थ नहीं होता, और फिर हमें अपनी सत्ता में जो भगवान् हैं उन्हें प्राप्त करना होगा, क्योंकि भगवान् अपनी विश्वातीत महिमा में नित्यप्रतिष्ठ होने के कारण अपने विश्वकर्मों और अपनी व्यक्तिगत क्रियाओं से बँधे हुए नहीं हैं--जब हम यह कर सकेंगे तभी अपने नैर्व्यक्तिक स्वरूप में प्रतिष्ठित हो सकेंगे । यही गीता की शिक्षा है और निष्कामता इस नैर्व्यक्तिक अवस्था को प्राप्त करने का एक साधन है, स्वयं साध्य नहीं । माना, पर यह हो कैसे ? सभी कामों को केवल यज्ञ के उद्देश्य से करके, यही है भगवान् का उत्तर । ''यज्ञार्थ कर्म को छोड्कर जो कर्म किये जाते हैं उनसे यह मनुष्यलोक कर्म में बंधा है; हे कुंतीसुत, तू आसक्ति से मुक्त होकर यज्ञ के लिये कर्म कर ।''  यह स्पष्ट है कि केवल यज्ञ-याग और सामाजिक कर्तव्य ही नहीं, बल्कि सभी कर्म इस भाव से किये जा सकते हैं । कोई भी कर्म संकुचित या संवर्धित अहंभाव से किया जा सकता या फिर भगवान् के लिए किया जा सकता है । प्रकृति की सारी सत्ता और सारा कर्म भगवान् के लिए ही है; भगवान् से ही उसका उद्भव होता है, भगवान् से ही उसकी स्थिति है और भगवान् की ओर ही उसकी गति है । पर जबतक हम अहंभाव के अधीन हैं तबतक इस सत्य को नही जान सकते, न सत्यके इस भाव के साथ

 

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कर्म कर सकते है, तबतक हमारा सारा कर्म अहंभाव से, अहंकार की तुष्टि के लिए अर्थात् यज्ञ के विपरीत भाव से, '' यज्ञार्थात्  कर्मणोऽन्यत्र'' , ही हुआ करता है । यह अहंकार के बंधन की गाँठ है । अहंकार को छोड्कर, भगवत्- प्रीत्यर्थ कर्म करने से यह गाँठ ढीली पड़ जाती है और अंत में हम मुक्त हो जाते हैं ।

      जो हो, आरम्भ में गीता ने यज्ञ के वेदोक्त भाव को ही लिया है और उस समय प्रचलित वैदिक परिपाटी के अनुसार ही यज्ञ के विधान का वर्णन किया है । ऐसा करने का एक विशिष्ट हेतु है । हम लोग देख चुके हैं कि संन्यास और कर्म में जो झगड़ा है उसके दो रूप हैं; एक सांख्य और योग का विरोध जिसका सिद्धांततः समन्वय इससे पहले किया जा चुका है और दूसरा वेदवाद और वेदांतवाद का विरोध जिसका गुरु को अभी समन्वय करना है । इस विरोधविषयक पहले वर्णन में श्रीकृष्ण ने कर्म को सर्वसाधारण और व्यापक अर्थ में ग्रहण किया है । सांख्य इस सिद्धांत को मानकर चलता है कि अक्षर और अकर्ता पुरुष की स्थिति ही परा स्थिति है और वास्तव में प्रत्येक जीव यही है, तथा पुरुष का नैष्कर्म्य और प्रकृति की कर्मण्यता दोनों परस्पर विरोधी तत्व हैं । अतएव सांख्य-सिद्धांत का कर्म की समाप्ति में पर्यवसान होना न्यायसंगत ही है । दूसरी ओर, योगमार्ग का निंरूपण आरम्भ होता है उन भगवान् की धारणा के साथ जो ईश्वर हैं, प्रकृति के कर्मोंके स्वामी है, इसलिए उनके परे हैं, अतएव योगमार्ग का मुक्तिसंगत पर्यवसान कर्म की समाप्ति में नहीं, बल्कि आत्मा की श्रेष्ठता और समस्त कर्म करते हुए भी उसकी मुक्तावस्था मे होता है । वेदवाद और वेदांतवाद के बीच जो विरोध है उसमे कर्म वैदिक कर्मों में ही परिसीमित हैं और कहीं-कहीं तो कर्म का अभिप्राय वैदिक यज्ञ और श्रौतकर्मों से ही है, बाकी सब कर्मों को मुक्तिमार्ग के लिये अनुप-युक्त कहकर छोड़ दिया गया है । मीमांसकों के वेदवाद ने इन कर्मों को मुक्ति का साधन मानकर इनपर जोर दिया और वेदांतवाद ने उपनिषदों पर आधार रखते हुए इनको केवल प्राथमिक अवस्था के लिए ही स्वीकार किया और वह भी यह कहकर कि कर्म अज्ञान की अवस्था के हैं और अंत में इनका अतिक्रमण और त्याग ही करना होगा, क्योंकि मुमुक्षु के लिये कर्म बाधक हैं । वेदवाद यज्ञ के साथ देवताओं की पूजा करता और इन देवताओं को वे शक्तियाँ मानता है जो हमारी मुक्ति की सहायक हैं । वेदांतवाद के मत से ये सब देवता मानसिक और जड़प्राकृतिक जगत् की शक्तियाँ हैं और हमारी मुक्ति में बाधक हैं ( उपनिषदें कहती हैं कि मनुष्य देवताओं के ढोर हैं और देवता यह नहीं चाहते कि मनुष्य ज्ञानवान् और मुक्त हों ); इसने भगवान् को अक्षर ब्रह्म

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के रूप में देखा है और इसके अनुसार हम ब्रह्म को यज्ञकर्मों और उपासना-कर्मो के द्वारा नहीं, बल्कि ज्ञान द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं । वेदांतवाद के मत से कर्म केवल भौतिक फल और निम्न कोटि का स्वर्ग देनेवाले हैं; इसलिए कर्मो का त्याग करना ही होगा ।

     गीता इस विरोध का समाधान इस सिद्धांत के प्रतिपादन से करती है कि ये देवता एक ही देव के, ईश्वर के, सब योगों, उपासनाओं, यज्ञों और तपों के परमेश्वर के ही केवल अनेक रूप हैं, और यदि यह सच है कि देवताओं को दिया हुआ हव्य भौतिक फल और स्वर्ग को देनेवाला है, तो यह भी सच है कि ईश्वर-प्रीत्यर्थ किया हुआ यज्ञ इनसे परे ले जानेवाला और महान् मोक्ष देनेवाला होता है । क्योंकि परमेश्वर और अक्षर ब्रह्म दो अलग-अलग सत्ताएँ नहीं हैं, बल्कि दोनों एक ही हैं और इसलिए जो कोई इनमें से किसीको भी पाने की कोशिश करता है वह उसी एक भागवत सत्ता को पाने की कोशिश करता है । समस्त कर्म ज्ञान में परिसमाप्त होते हैं, ''सर्वं ' कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते'' । कर्म बाधा नहीं हैं, बल्कि परम ज्ञान के साधन हैं । इस प्रकार इस विरोध का भी यज्ञ शब्द के अर्थ को व्यापक दृष्टि से सुस्पष्ट करके समाधान किया गया है । यथार्थ में यह विरोध योग और सांख्य का जो बड़ा विरोध है उसीका संक्षिप्त रूप है; वेदवाद योग का ही एक विशिष्ट और मर्यादित रूप है; और वेदांतियों का सिद्धांत हू-ब-हू सांख्यों के सिद्धांत जैसा ही है, क्योंकि दोनों के लिए ही मोक्ष प्राप्त करने की साधना है बुद्धि का प्रकृति को भेदात्मक शक्तियों से, अहंकार, मन और इन्द्रियों से तथा आंतरिक और बाह्य विषयों से निवृत्त होकर निर्विशेष और अक्षर पुरुष में वापस लौट आना । विभिन्न मतों का समन्वय साधन करने की इस बात को ध्यान में रखकर ही भगवान् गुरु ने यज्ञविषयक अपने सिद्धांत के कथन का उपक्रम किया है; परन्तु इस संपूर्ण कथन में सर्वत्र, यहां-तक कि एकदम आरंभ से ही, उनका ध्यान यज्ञ और कर्म के मर्यादित वैदिक अर्थ पर नहीं, बल्कि उनकी उदार और व्यापक व्यवहार्यता पर रहा है-गीता की दृष्टि सदा इन मतों की मर्यादित और बाह्य धारणाओं को विस्तृत करने और इन्होंने जिन महान् बहुप्रचलित सत्यों को सीमित रूप दे रखा है उन्हें उनके सत्य स्वरूप में प्रकट करने पर रही है ।

 

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